मनुय उस ۡतता में जीता ह जा यथाथ आर कविल एक कटन ह: जा ह आर जा उस ेदखता ह; जा शात आर अपिरवतनीय ह, आर जा अथायी आर पिरवतनीय ह । ज्ञानी लागि उस शात अपिरवतनीय ‘जा ह’, उस यथाथ क में समझत ह आर अनुभव करत ह, ज] ेक मनुय अथायी पिरवतनीय ‘जा उस ेदखता ह,’ उसीका जानता ह आर यथाथ हानि का मानता ह । यथाथता का काइ माण नहीं आर हा भी नहीं सकता यों ेक वह मन स रि ह, हालोक मनुय उसक ेलए सदा यास करता ह; जा भोमक ह उसका माण का काइ अभाव नहीं यों ेक वह मन क भीतर ह आर ेजस मनुय यथाथ हानिि का मानता ह । अत: मनुय, अथायी आर पिरवतन क क्ष में, खुद का सार न समझत हए अेनेतता में जीता ह । ‘अۡत’ का अथ ह ‘दा नहीं’

 

‘जा ेवभ नहीं हाताि’: हर ुष आर ी का जीवन ही एसाि ह ।

‘अۡत लििकशिनस’ अनि व]सट ारा एक ]ढती हइ श्रखला की

 

ेकता]ें, ेन]ध, सीडी, डीेवडी, यायामक ेचण दान करत ह आर ससग क ेनमण भी ह, ेजसका एक उयि ह एक ज्ञानी ारा, जीवन का समझ का ेवतरण, जा ेकयाए, ]ालीि, ेवचार, समय आर खुद मन की भोमक वभाव का समझ चुक ह ।

 

जा इस व]सट में उलिध ह, उस कयाि यान स देखए ।