कैवल्य गीता - पहला खंड

 

 

 

विषय-सूची

1. अकेलापन

2. रिश्ता

3. प्यार

4. विवाह

5. वाद-विवादें

 

 

6. क्रोध

7. पीडा

8. स्वेच्छा

9. समरसता

10. जीवन

 

प्रस्तावना:
जब से मानव विचार करने का एक प्राणी के रूप में विकसित हुआ है, तब से एक सृष्टिकर्ता के अस्तित्व पर विचार करने के लिए, वह आकाश की तरफ़ देखा है। वह जिस संसार में जीता है,उससे आश्चर्यचकित हुआ है; उसका अस्तित्व कैसा हुआ और यह प्रश्न भी करने लगा कि वह कौन है। उसके मन में, एक ऐसी शक्ति की उपस्थिति का विचार किया है, जिसे वह समझता नहीं; एक पथप्रदर्शक आत्मा जो उसका अदृश्य साथी रहेगा। इस आत्मा की व्यक्तित्व को, कोई सीमा बिना कल्पना करते हुए इसे प्रकृति में संकेत किया है- चाहे वह लकडी या पत्थर का हो, धातुमय आकाश की वृतांश हो, खाली गहरा सागर हो, या पृथ्वी की छिपी हुई गहराई हो। वह अपने सृष्टिकर्ता का स्थान निर्धारित करने के लिए, दृश्य और अदृश्य के संसार में प्रवेश किया है।

 

मनुष्य ने सृष्टिकर्ता के कई नाम प्रदान किया है और उनके नाम पर अपने जीवन में सुरक्षा, समृद्धि और सुख सुनिश्चित करने के लिए, पूजा की कई योजनाएँ बनाया है। सृष्टिकर्ता के नाम में समुदाय के लिए कई नियम और विनियम निर्धारित किया है और अपने जीवन में शांति और सहमति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें पवित्र और अनुल्लंघनीय होने का मान लिया है। ये कई पीढियों से स्वीकृत किया गया है और परंपराओं का अधिकार पाया है, और ज़्यादातर अपने पूर्वजों की प्रथा और अभ्यास यानि पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रिक तौर पर हम कौन है, यह पहचान बनाये रखने में मदद किये हैं। इस संसार के हर कोने में, हर संप्रदाय में, चाहे जितने भी वे विविध हो, मनुष्य अपनी मान्यताओं को ब़डी भक्ति से अपने सृष्टिकर्ता और सृष्टि को एक एकाकी और अकसर उत्तेजनापूर्वक रूप से उन्हें सत्य होने का प्रकट किया गया है। इस भक्ति का हर प्रकटन, नियमनिष्ठ और तर्कसंगत है जहॉं तक मान्यताओं की बात है। पर मनुष्य तो वही रहा है; क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, संशय और दुख इत्यादि, मनुष्य को निरन्तर रूप से परेशान करते आये हैं।

इसलिए हर पीढ़ी में, मनुष्य एक सृष्टिकर्ता की अस्तित्व के बारे में धर्म और आद्यात्मिकता में पाये गये हर कल्पनीय विधि द्वारा यह विचार किया है; जिस संसार में जीता है, उसका वर्णन करने के लिए और उसे कैसे जीना चाहिए कई मान्यताओं की योजनाएँ को प्रस्तुत किया है, अपने मान्यताओं का समर्थन करने के लिए, कई धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और सिद्धान्तों का सूत्रबद्ध किया है और ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए, अपने मन को निपटने के लिए जो उसे परेशान करता है, और परमानन्द में जीने के लिए,वह कई योजनाएँ बनाया है जिसकी श्रेणी कुछ अत्यधिक से लेकर बिलकुल तर्कविरुद्ध तक होते हैं। पर सब कुछ व्यर्थ है क्यों कि मनुष्य अपने आप और जीवन दोनों को अब तक ऐसा ही होने का पाया है जैसे पहले था। प्यार केवल एक शब्द के कहने पर टूठ जाने जैसा लगता है; शांति तो कहीं क्षितिज में होने जैसा लगता है। दर्द और दुर्दशा, रोज़ की बात होने जैसा लगता है; स्वतन्त्रता तो भ्रांतिपूर्वक लगता है और बंधन तो अनिवार्य। इसलिए प्रश्न यह उठता है कि क्या सृष्टिकर्ता या सृष्टि उस विधि में विद्यमान हो सकते हैं जो मनुष्य को मानने में मज़बूर किया गया है?

पर जो संसार से आश्चर्यचकित हुए हैं और सफलतापूर्वक एक सृष्टिकर्ता के अस्तित्व पर विचार किये हैं,और यह समझने को आये हैं कि वह जैसा है वैसा आया है और उन्हें यह बोध भी प्रकट हुआ कि वास्तव में मनुष्य कौन है। वे घोषित किये हैं कि जीवन ‘रोशनी’ और ‘ध्वनि’ की अभिव्यक्ति है। उन्हें ऋषि-मुनि या ज्ञानी कहा जाता है। वे समझ चुके हैं कि भगवान या जीवन, केवल रोशनी है, शुद्ध प्रज्ञा है, शुद्ध ऊर्जा है, और यह शक्ति मनुष्य के भीतर निवास करता है और इस अभिव्यक्ति के हर कण के भीतर और जीवन के हर क्षण के भीतर भी है। विज्ञान अभी दूर नहीं यह स्वीकार करने के लिए कि रोशनी या ऊर्जा केवल जानकारी नहीं,बल्कि जीवन के हर रूप का निर्माण-मात्रक है। जीवन की प्रज्ञा को गलत नहीं समझनी चाहिए और नाहि उसे कम महत्व देनी चाहिए। रोशनी और ध्वनि के इस खेल को जिसे संस्कृत में ‘बिन्दु’ और ‘नाद’ कहा जाता है, वह एक चाक्षुष और श्रवणात्मक भ्रम है, जिसे संस्कृत में ‘माया’ कहा जाता है और जिसे मनुष्य अपना संसार कहता है। ठीक वही यह किताब स्पष्ट रूप से वर्णन करता है: कैवल्य का मतलब ‘सम्पूर्ण’ और गीता का मतलब इस संदर्भ में ‘एक समझ’।

 

कैवल्य गीता कुछ साठ खंड से कम नहीं और उसका पहला खंड यह पुस्तक है। सामूहिक रूप से जो भी मन अब तक जानने को आया है, उन सब के भ्रामिक स्वभाव को बडी स्पष्टता से वर्णन करता है: जीवन के प्रतिदिन विषय, मन की हर भावना, ज्ञान, धर्म, आद्यात्मिकता और विज्ञान भी। सभी खंड जीवन को जैसा है, वैसा ही व्यक्त करते हैं - यानि आकार, रूप, और ध्वनि का एक एकाकी गतिवधि के रूप में जो मन को शब्द और उनके अर्थ सहित प्रकट होता है -हालांकि सभी भ्रामिक है -सभी किस्म का एक नाटक जिसमें अलग घटनाओं और क्रियाओं का कोई अस्तित्व नहीं पर केवल एक चाक्षुष भ्रम के रूप में होने जैसा प्रकट होता है । यह बात कि जीवन में समय, काल, क्रिया, मन और व्यक्ति विद्यमान नहीं होते बहुत प्रत्यक्ष हो जाता है जैसे-जैसे पढ़नेवाले उस समझ को विचार करना आरंभ करते हैं जो ये खंड प्रदान करते हैं। जीवन की प्रज्ञा जो हर क्षण एक परिष्कृत माया का अभिव्यक्त करता है वह हर पृष्ठ में सुस्पष्ट हो जाएगा।

 

इस खंड का ज्ञान उन लोगों को सूचित करने के लिए, जो मानते हैं कि सृष्टिकर्ता उनके बाह्य है, एक आसान कार्य नहीं है। फिर भी हमें प्रेरित करता है, उसे देखने के लिए जो हम नहीं देखते और जो हम देखते हैं वह स्पष्ट रूप से अस्तित्वहीन होने का प्रमाणित करता है; हमें प्रोसाहित करता है, उसे सुनने के लिए जो हम नहीं सुनते और जिसे हम सुनते हैं उसे भ्रामिक होने का समझाता है; हमें संकेत करता है, उसे समझने के लिए जो हम नहीं समझते, और जो हम समझते हैं, उसे स्पष्टतापूर्वक ज्ञान होने का और जो जीवित नहीं बल्कि निर्जीव होने का महत्व देता है। और फिर भी, जो हम देखते हैं, वह सुनिश्चित रूप से वही देखता है; जो हम सुनते हैं वह स्पष्टता से वही सुनता है और हर क्षण सुनिश्चित रूप से उसी को समझता है जो हम समझने को आये हैं, परन्तु यथार्थ को नहीं बल्कि भ्रामिक के रूप में होने का। इस खंड में, विभाजन या द्वैतता का कोई इशारा नहीं; आलोचना या निंदा का कोई इशारा नहीं; मुकाबला या विरोध का कोई इशारा नहीं; कर्तृत्व का कोई इशारा नहीं और नाहि उसकी कोई संभावना।

इन पृष्ठों में जो रहस्योद्घाटन समाये हुए हैं, उसके प्रति मन एक संपूर्ण अजनबी है; वे प्रत्यक्ष बोध और जीवन के मनोवृत्ति और जो भी उसमें घटित होता है, उसके प्रति पूर्ण रूप से अनजान है। मन उस सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं रहेगा जो उसकी परख से प्रकाशित होता है। फिर भी, वास्तव में, उस छोटे पोखर मन को समझने के बजाय, कोई चुनाव या निर्णय नहीं। उसे छोटे होने का प्रतिरोध भी बताता है और सिर्फ़ यह कि वह एक छोटा पोखर है और जीवन में उसका कोई वास्ता नहीं। मन से ऐसा एक धोखा बुना गया है।

मनुष्य के सबसे केन्द्रित और सबसे बोझिल गलतफ़ेहमी के हर विशिष्ट संदर्भ में यह खंड,जीवन का एक अनुपम समझ प्रदान करता है। हमारे और दूसरों के लिए, संसार के दर्द से राहत मिलने के लिए, अपने ईमानदार खोज में, अपने आप और दुख दोनों को निपटना पडता है और ये काफ़ी व्यंग्यात्मक है क्यों कि हम विश्वस्त है कि हम इस जीवन को चला रहे हैं ! जिस विश्वास को हम थामते हैं, वह बहुत गहरा है यानि वह हमें बांध रखता है। फिर भी जब अब हम इन कलहों का निरिक्षण कर रहे हैं,तब इस किताब के मार्गदर्शन की शक्ति उस पीडा या दर्द को निकालता है यदि खुद उस कलह को नहीं।

‘कैवल्य गीता’, डॉ:विजय.एस.शंकर द्वारा लिखा गया था और पहले इसे अंग्रेज़ी भाषा में भाषण दिया गया था। यह कोई अनुसंधान का परिणाम नहीं; यह तो डॉ:विजय.शंकर द्वारा दिया गया स्वाभाविक भाषण का संकलन है। ये विचार-विमर्श अब भी स्वाभाविकता से, अनियन्त्रित और अप्रत्याशित रूप से ज़ारी है, जैसा खुद जीवन है। कैवल्य गीता के पहले खंड के भीतर हर निबन्ध में, जो समझ और सहानुभूति व्याप्त है, वह बहुत हृदयस्पर्शी है। इस किताब के विषय-वस्तु, मानव के सबसे संवेदनशील केन्द्र को छूता है- उस बिन्दु पर जहाँ वह ‘दैविक’ है। वह एक समझ प्रदान करता है जिसकी कोई शुरुआत या अन्त नहीं।

पीटर जूलीयन्‌ केप्पर
एम.ए.(केनटॉब) यू.के.

 

 

 

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