कैवल्य गीता - दूसरा खंड

 

 

वि‍षय-सूची:

1. चिन्ह

2. ज्ञात

3. दृष्टि-कोण

4. तर्क

5. विचार-करना

 

 

6. मिथ्या

7. सपना-देखना

8. पागलपन

9. भ्रम

10. अनुपस्थित मन

 

पूर्वैतिहासिक मानव का एक मन था पर वह क्रियाशील नहीं था। जब पूर्वैतिहासिक मानव के मन में पहला ‘चिन्ह’ या ‘लेबल’ प्रकट हुआ, तब उसका मन क्रियाशील बन गया। मन में चिन्ह के मात्र बढ़ने लगे जैसे जैसे जीवन अपने आप को परिष्कृत करने लगा। धीरे-धीरे, नियमित और निश्चित रूप से चिन्ह विकसित मानव के मन में बढ़ रहे थे और यह वृद्धि, ‘ज्ञात’ या ‘ज्ञान’के रूप में प्रकट हुआ। ज्ञान और उसके अर्थ के विकास ने अनुवर्तित रूप से ‘योजनाओं’ को उत्पन्न किये और जब ये योजनाएँ एक विधि में एक दूसरे से संबन्धित होने लगे, वे अविकसित ‘तर्क’ को जन्म दिये।

जैसे-जैसे मानव विकसित हुआ, तर्क ने पहली बार मानव के मन में ‘विचार करने की प्रक्रिया’ का प्रारंभ किया। जब तर्क महत्वपूर्ण और तेज़ बन गया, तब विचार करने की क्रिया को ‘मिथ्या’ होने का कुछ लोग के समझ में आया, जिन्हें ‘ऋषि-मुनि’ के नाम से कहलाये गये। जब वे समझ गये कि मन मिथ्या था, वे घोषित किये कि मनुष्य जागृत अवस्था में ‘सपने देख रहा’ है। देखा गया कि सपना देखना तो एक रुचिकर तरह का ‘पागलपन’ के सिवा कुछ नहीं है। ऋषि- मुनि लोग घोषित किये कि सपना देखना या मन का पागलपन, यथार्थ नहीं बल्कि ‘भ्रामिक’ है। चिन्ह, ज्ञात, योजनाएँ, तर्क, सपना देखना और पागलपन भ्रामिक होने के कारण, ऋषि-मुनि लोग मन को ‘अनुपस्थित’ होने का समझ गये !

कैवल्य गीता के इस खंड के अध्यायों के कालक्रमानुसार-व्यवस्था, इस मानसिक प्रक्रिया का एक सुव्यवस्थित और स्पष्ट समझ प्रदान करता है ।

पहले अध्याय में बिलकुल सही और स्पष्ट रूप से बताया गया है कि हर एक व्यक्ति के जीवन का केन्द्रबिन्दु चिन्ह हैं। मन का अत्यन्त सर्वश्रेष्ठता और चिन्हों के हेत्वाभास का विश्लेषण किया गया है और उपस्थित यथार्थता की स्पष्टता एक तारे के समान उभर उठता है। जिस विकट परिस्थिति में मनुष्य अपने आप को पाता है अंततोगत्वा चिन्हों के बारे में विस्तृत रूप से लिखते समय, एक शल्यचिकित्सिक छूरी की निश्चितता समान, सूचित किया गया है।

‘ज्ञात’ का अध्याय, ज्ञात की शक्ति की प्रज्ञा को (सभी भ्रामिक होते हुए भी) ऐसे होने का प्रकट करता है कि हम विश्वस्त हो चुके हैं जो यथार्थपूर्ण है वह तथ्यहीन और काल्पनिक है और जो तथ्यहीन और काल्पनिक है वह यथार्थ है। मनुष्य से उपयोग की गयी ज्ञानेन्द्रियॉं और प्रमाण, निरन्तर रूप से इसे ऐसा होने का घोषित करते हैं और फिर भी वही शक्ति हमें यह बताते हुए प्रबुद्ध करती है कि वास्तव में ऐसा नहीं है। रोम निवासियों के उन दिनों से जो यथार्थ की आविष्कार करने में अधिकृत हैं, हमें उसकी घणता और अविनाश्ता से विश्वस्त किया गया है! इस अध्याय में जो स्पष्टिकरण है, वह - उसकी, जो खुद ‘एक’,और ‘अमर’,है और उसकी, जो एक से ज़्यादा तत्वों का संयोजन है, यानि जो भ्रामिक और अस्थायी है, एक रहस्योद्घाटन है। जो कुछ ज्ञात है चाहे वह कितना भी अगाध हो, वह यथार्थ नहीं है, क्यों कि वह ज्ञात होने के कारण, वह एक संमिश्रण बन जाता है और इसलिए विनाश्नीय है, जब कि जो एक है और उसे जानने, खंडन करने, या दृढतापूर्वक कहने के लिए भी कोई दूसरा नहीं- वह इसलिए अविनाश्नीय और अमर है।

जब कि यह सच है कि हमारा जीवन, योजनाओं के कारण, स्पंदनशील है, फिर भी अनिश्चितता उसका साथ देता है; इसलिए उसकी शक्ति और क्षमता एक उद्धारक के रूप में, कुछ दूर की बात है। यह बेचैनी का कारण बन जाता है जो सफलता और असफलता और उसका परिणाम की एक योजना से उत्तेजित हुए हैं, और जो ज़रूर ज्ञात नहीं हो सकता। पर ‘परिणाम’, एक और योजना पर आधारित है यानि परिणाम और प्रभाव! इसलिए जीवन को जी लीजिए- वह ज़रूर विचार नहीं किया जा सकता- क्यों कि जीवन रहस्मय है। जो वास्तव में घटित होता है, वह किसी भी क्रिया का ‘आयोजन’ के साथ कोई समानता नहीं रखता और फिर भी वानिज्यशास्त्र, राजनीति और सफलता के विशाल संसार यह मानते हैं कि उनके अस्तित्व के लिए पूर्वविचार अनिवार्य है। ‘जब एक बार मनुष्य योजनाओं से हार मान लेता है, वह कभी सुख को ढूँढ नहीं पाएगा’: यह मनुष्य की दुर्दशा का सबसे महत्वपूर्ण सूचक है जो जीवन से प्रकट किया जा सकता है। अध्याय ‘योजनाएँ’को पढ़ते वक्त, अनिवार्य रूप से एक व्यक्ति को उसकी विषय-वस्तु और खुद अपने बारे में योजनाएँ प्रकट होंगे। समझने का मौका उभरते हुए योजनाओं की सतर्कता पर निर्भर है और वह अधिकतर जो पहले पढ़ा गया है उसका विरोध करेगा और बाधाएँ भी खडा कर देगा। जो घटित हो रहा है, उसके प्रति स्थिरित और सतर्क रहना ही इन शब्दों में छिपी हुई ज्ञान को बेधन करने की शुरुआत है। यह बहुत सुस्पष्ट होता है कि योजनाएँ मनुष्य को एक व्यक्ति के रूप में शक्तिशाली बनाता है और एक माया की जाल में बन्ध रखते हुए उसे यथार्थता से दूर रखता है। इसे समझना आवश्यक है कि घटित होने के बिन्दु में रहना ही वह जगह है जहाँ वास्तव में मनुष्य है। यह अध्याय यथार्थता के हृदय तक पहुँचता है।

अंग्रेज़ी में ‘तर्क-काटना’ एक जाना-माना मुहावरा है। जब तक इस अध्याय को प्रस्तुत किया गया और वो भी इतने विस्तृत सावधानी और अंतर्दृष्टि सहित, तर्क काटने का मतलब समझा नहीं गया। वह वास्तव में उसे दो भागों में काट देता है, जो विभाजन नहीं किया जा सकता। उसे समझने पर ही, और ज़्यादा तर्क-काटनेवाले की पद बढ़ने के साथ-साथ, यथार्थता को केवल अभिप्राय के विषय तक घट देने की सामर्थ्य अनाक्षेपनीय है। यह बहुत पहले से एक बुद्धिमान व्यक्ति का आधरनीय चिन्ह रहा है! दूसरी तऱफ़ वह एक कायर का चिन्ह है जो खुद जीवन से जो रहस्यमय है, उससे बचे रहने के लिए, उसे एक कूटने का यंत्र के रूप में उपयोग करता है! कई पीढियों से, कई महान विचारक, तर्क के सीमित कार्यक्षेत्र से पीछे हट चुके हैं और इस दुनिया से और ज्ञानवान न होते हुए चल बसे। फिर भी, तर्क इस अध्याय में इतना स्पष्ट बन गया है कि वह कोई मन का वाक्छल नहीं है। इस रहस्य और माया दोनों को जो तर्क मन में निर्माण करता है, उसे जी लेना ही एक जोखिम-भरा आत्मा का निशान है- ऐसा एक आत्मा इस किताब के लेखक द्वारा अभिव्यक्त हुआ है, क्यों कि तब ही इसे लिखना संभव हो सकता था।

 

एक आयोजित और ‘सुरक्षित’ जीवन जीने के लिए, सोचन की क्रिया अनिवार्य बन गया है, पर पूरी तरह जो घटित होने वाला है और जो घटित हो चुका है, उसपर केन्द्रित है। जो घटित होता है उसे साक्षी के रूप में घटित होते हुए देखना, प्रत्यक्ष रूप से उस भय से रोका जाता है कि ‘हम शायद कुछ खोने वाले हैं’ ! ‘सोचने की क्रिया’ का अध्याय , यह बताता है कि हम भविष्य को निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं- यह तो ऊर्जा का बेतुका और दयनीय बरबादी है और जीवन की हानी भी। इस अध्याय में कितनी गहराई है।

वो आधार, यानि जीवन एक रहस्य है; ज्ञात का पूरा संसार जो उससे उभर उठता है, एक सपना है। हम निराशा से ज्ञान से लिपटे रहते हैं, यह न समझते हुए कि उसकी कोई यथार्थता नहीं। जो संकेत जीवन हमें देती है, हम उसे गलत समझ बैठते हैं और हम सपने में समाधानों के लिए अविलंबित रूप से ढूँढते हैं। इससे बाहर आना बहुत कठिन है : ब़डी साहस चाहिए इस सफ़र को बनाये रखने के लिए, क्यों कि वह अज्ञात और जानने योग्य से भी परे है। ‘सपने देखने’ के अध्याय की शुरुआत से अंत तक मनुष्य को एक माध्यम के रूप में उपयोग करते हुए, सुनिश्चितता और स्पष्ट समझ से, जीवन उसे प्रकाशित और जाँच करता है जिसे यथार्थ माना जाता है और उसे एक सपना होने का बताया जाता है : यह अद्भुतीय है। संयोगवश से परे, निद्रावस्था और जागृतावस्था के संबन्ध में हमें अपना मौलिक मान्यताओं को बताता है - जो हमें क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ है, उसके विषय में बडी गंभीरता से धोखे में रखता है । यह जॉंच-पडताल उसकी प्रमाणिकता के लिए हमें कोई संदेह बिना छोड देता है - वह मन से आता नहीं और उत्पन्न भी नहीं हो सकता था - ज्ञानोदय के बारे में वह सभी पूर्ववर्तित प्रवचन और सिद्धान्तों को नष्ट कर देता है। उसकी रोशनी और प्रज्ञा की शक्ति और तीव्रता ऐसी है।

जब यह बोध प्रकट होता है कि हम कर्ता, वक्ता और विचारक नहीं है, तब सपना प्रकट हो जाता है और ढह भी जाता है। यह बोध इस अध्याय में परिव्याप्त करता है।

यह बात कि मनुष्य खुद जीवन को छोडकर मन को अपना पथ-प्रदर्शक, विश्वस्नीय और भरोसेमन्द होने का चुना है, बडी स्पष्टता से ‘पागलपन’ के अध्याय में प्रकट किया है। जीवन मनुष्य के लिए, उस विकल्प को प्रतिस्थापन के रूप में प्रदान किया है यह जानने के लिए कि यथार्थता में कोई विचार, शर्त या प्रत्याशा की कोई झलक भी नहीं है। उसका रहस्योद्‌घाटन इतना स्पष्ट है कि अपना जीवन बनाये रखने के लिए, हम निस्संदेह अतीत के साथ उसकी निरन्तरता पर निर्भर है, जब कि जीवन हर कदम में एक मार्ग-दर्शक के रूप में है - जब हम अंततोगत्वा समझने को आते हैं।

 

हर कल्पनीय बिन्दु की अभिव्यक्ति में भ्रामिक मन द्वारा जीवन को नियन्त्रण करने की इच्छा संशोधन नहीं किया गया है और किया भी नहीं जा सकता। निद्रावस्था में भी इसे रोका नहीं जा सकता जहाँ मन के लिए कोई स्थान नहीं। इसे उपयुक्त शीर्षक ‘माया’ के अध्याय में गहरी अंतर्दृष्टि से वर्णन किया गया है। फिर भी, धीरे-धीरे, भगवान की कृपा से मन का बेधन जाँच-पडताल उनसे किया जाता है जो परे हो चुके हैं, और एक ऐसा मंच हमें प्रदान करते हैं कि हमें कहाँ से साक्षी बनकर देखना है और किसमें हमें स्थापित होना है। जब आदमी उसपर निर्भर करता है जो मन यानि इन्द्रियों का गुलाम घोषित करता है, तब वह भ्रम में ही रहेगा।

माया ही माया को स्पष्ट करती है; सपनों को दूर करने की या कम से कम सम्मोहित करने वाला पर्दा को उठाने की शक्ति, लिखित शब्द धारण करते हैं। मानसिक उपकरण जो ‘कार्य करने’ के लिए उपयोग किया जाता है, वह अपर्याप्त है- यह ज़िक्र न करते हुए कि वह अलभ्य है। मनुष्य को जिस तरह होने का कल्पित किया गया है, उसे अब तक यह समझना बाकी है कि ज्ञान को प्रयत्न द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता क्यों कि ‘अनुपस्थित मन’ को प्राप्त करने के लिए आग्रह करने में वो ज्ञान, माया की एक अंश ही होगा। इस अध्याय में जो ज्ञान है, वह एक रुचिकर विधि से फिर से जीवन में फुरतीलापन डालता है। जीवन में इतने सारे चीज़ों और कार्य दोनों का वर्गीकरण करने का परिणाम यह है कि जीवन जो उपभोग उत्पन्न कर रहा है उसे, थो़डी सी चीज़े और कार्य होने तक सीमित करने में मन सफल हुआ है। हमें ऊब जाने में और हमेशा और श्रेष्ठ या और अधिक पाने की तरफ़ ढूँढने के लिए मज़बूर करता है। यथार्थता में ऐसा बिलकुल नहीं है: वह ऐसा है- जो कभी ज्ञात हुआ ही नहीं और नाहि ज्ञात हो सकता है। जीवन की माया का स्वभाव जो हम सोचते हैं हम चला रहे हैं, धीरे-धीरे अपने आप को प्रकट करता है, जैसे-जैसे इस किताब के पृष्ठ को पढ़ाया जाता है और समझा जाता है। वह जीवन ही है जो वास्तव में वहाँ है ही नहीं और नाहि उसे वहाँ होना संभव है!

पीटर जूलीयन्‌ केप्पर
एम.ए.(केनटॅब) यू.के

 

 

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