डाक्टर.विजय.एस.शंकर
एम.डी पी.हेच.डी
इसोटेरा
जर्मनी-2006

ज्ञान एक चुंबक है जो एक व्यक्ति को आकर्शित करता है क्यों कि यह माना जाता है कि ज्ञान नौकरी को सुनिश्चित करता है, चरित्र का निर्माण करता है, जो बदले में सुरक्षा का एक एहसास देता है जो आपेक्षित की गयी सुख को लाता है। इसलिए, ज्ञान को सराहया जाता है और उसकी प्रशंसा भी की जाती है। सम्मान और प्रशंसा, उस व्यक्ति पर बरसाया जाता है जो अत्यन्त प्रशंसनीय ज्ञान का प्रदर्शन करता है। यही कारण है क्यों मनुष्य ज्ञानवान होने के लिए लालायित होता है। मनुष्य अपनी प्रशंसा या अपने पर ध्यान दूसरों से किये बिना जी नहीं सकता और एक अज्ञानी की उपेक्षा हमेशा की जाती है। यही कारण है क्यों मनुष्य अज्ञान से भयभीत रहता है और ज्ञान के लिए लालायित रहता है।

सभी लोग कुछ न कुछ जानते हैं। एक ऐसा आदमी को देखना असंभव है जो निश्चित रूप से कह सकता है कि वह सब कुछ जानता है। मनुष्य कुछ न कुछ के बारे में थोडा कुछ जानता है। वह विज्ञान, शैक्षिक, धर्म, आद्यात्मिकता या जीवन कैसा होना चाहिए उसकी धारणाएँ इत्यादि जानता है। इसे ज्ञान कहलाया जाता है। पर क्या थोडा कुछ ज्ञान जानना का़फ़ी है? ऐसा ही लगता है क्यों कि मनुष्य अभी तक उसी को चुनता आया है। और इसलिए यह कहावत- ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है।

दूसरी तरफ़, ऐसा कुछ है जिसे समझ कहलाया जाता है। मनुष्य जिस परिस्थिति में है, वह उसे समझना चाहता है जैसे कि, उसके रहने के स्थान के वातावरण, जिनके साथ वह रहता है या काम करता है- यानि उसके दैनिक जीवन। समझ का मतलब है उन सब विषयों के बारे में एक निश्चितता, एक स्थायी स्पष्टता जो मनुष्य के सापेक्ष अनुभव में घटित होते हैं। स्पष्टता का मतलब है संशय और निर्णय की अनुपस्थिति। समझ का मतलब- सविस्तार विवरण के साथ इस बात से अवगत रहना कि दैनिक जीवन के बारे में जो भी मन कहता है, वह एक माया है। समझ का मतलब है कि इस बात से अवगत रहना कि मन कभी नवीन,ताज़ा या यथार्थ के बारे में सूचित नहीं कर सकता। अब प्रश्न यह है,क्या मनुष्य को यह समझ है?

पर जो कुछ भी अब तक मनुष्य समझा है(या सोचता है कि वह समझा है)बदलते रहते हैं। जैसे-जैसे मनुष्य बडा होता है, उसके दैनिक जीवन के सब विषयों के बारे में उसका समझ भी बदल जाता है ! उसकी भावनाएँ और मनोभाव हर क्षण बदलते रहते हैं। इससे यही प्रमाणित होता है कि मनुष्य अब तक अपने दैनिक जीवन को समझ नहीं पाया है। मनुष्य को अपने दैनिक जीवन का समझ नहीं है; उसके पास केवल दैनिक जीवन के अभिप्राय हैं- एक अभिप्राय जो अप्रत्याशित रूप से बदलते रहते हैं। मनुष्य ऐसे सोचने में भ्रामित होता है कि उसके अभिप्राय ही एक समझ है। जीवन को अब तक वह समझ नहीं पाया है जिसमें वह अपने आप को पाता है।

ऐसी समझ की अवस्था, एक विश्वास की अवस्था तक पहूँचने के लिए मनुष्य कहॉं से शुरुआत करता है? मनुष्य को क्या समझना चाहिए जिससे अपने दैनिक जीवन से संशय और निर्णय मिटा जा सकता है? खुद को सम्मिलित करते हुए, अपने मन और अहं और जो भी मनुष्य के सापेक्षित प्रयक्ष ज्ञान की सीमा के अंदर प्रकट होते हैं, उनके स्वभाव को जानना ही शुरुआत की एक आधारभूत स्थान होगी: यानि विचार को सम्मिलित करते हुए जीवन के विशिष्ट निर्माण के मात्रक क्या हैं? मनुष्य को यह खोजना है कि क्या समय, क्रियाओं और परिस्थितियों को एक यथार्थता के रूप में घटित होने की अनुमति देने के लिए जीवन में सचमुच विद्यमान होता है या नहीं। समझ, ज्ञान के समान नहीं। ज्ञान और समझ दो अलग तथ्य हैं। उन दोनों का परामर्श आगे किये जाएँगे।

विज्ञान द्वारा, जीवन यह प्रकट किया है कि उसका वशिष्ट निर्माण-मात्रक, विद्युतगणु(एलक्ट्राण), क्लीवाणु (न्यूट्राण), और आवंत(प्रोट्राण)हैं - ऊर्जा का एक प्रकटन। आगे, ऊर्जा के और सूक्षमक मात्रक हैं जो इन मात्रकों का निर्माण करते हैं और जिन्हें तोले नहीं जा सकते। बुनियादि तौर पर जीवन ऊर्जा है। यह ऊर्जा रोशनी है। कोई पहले यह नहीं कह सकता कि रोशनी क्या है। जीवन (और मनुष्य नहीं) अपने आप को अब तक रोशनी होने का घोषित किया है! विचार भी केवल ऊर्जा हैं। समय यानि काल भी केवल ऊर्जा है क्यों कि समय भी केवल एक विचार है। अत: जीवन में सब कुछ - वस्तुएँ, वनस्पति, पशु, मानव और उसके विचार केवल रोश्नी हैं!

 

यह एक साधारण गलत़फ़हमी है कि समझ द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। पर यह ऐसा नहीं है। सूचना को एकत्र करना, इक्ट्‌ठा करना ही ज्ञान है। तर्क और वितर्क द्वारा,ज्ञान को एकत्र किया जा सकता है पर समझ को नहीं। ज्ञान में अधिक्तर तर्क प्रमुख है। कभी-कभी तर्कहीन सूचना भी ज्ञान होता है जैसे दैविक ज्ञान, चाहे वो आद्यात्मिक या धार्मिक हो। समझ एक स्पष्टता है जो यह प्रकट करता है कि तर्क और वितर्क संपूर्ण नहीं बल्कि केवल सापेक्ष हैं।

 

ज्ञान, बोध नहीं बल्कि शब्द और उनके अर्थ हैं। समझ प्रज्ञा है - एक बोध कि शब्द के अर्थ किसी भी तरह संपूर्ण या स्वतन्त्रित नहीं है। मनुष्य मानता है कि समझ से ज्ञान ब़़ढता है। समझ, ज्ञान का वृद्धि नहीं करता। पर दूसरी तऱफ़ समझ ज्ञान का वितरण करता है। यदि समझ, ज्ञान का वृद्धि करता है तो गलत़फ़हमी ज्ञान का वितरण करना चाहिए, पर वह करता नहीं! गलत़फ़मी केवल वाद-विवाद,क्रोध और पी़़डा को उत्पन्न करता है। गलत़फ़मी ज्ञान है! समझ एक स्थिरित अवस्था को घटित करता है। समझ प्रज्ञा है। आओ, बैठो और जमा करो -ज्ञान है। आओ, बैठो और सुनो ही समझ है। ज्ञान सूचित करता है जब कि समझ, परिवर्तित करता है। ज्ञान मनुष्य को एक अध्यापक, एक पंडित बनाता है। समझ मनुष्य को एक गुरु, एक ज्ञानी के रूप में परिवर्तित करता है।

 

ज्ञान द्वैत है। हर शब्द का अर्थ होता है केवल इसलिए कि उसका विपरीत का विद्यामान होता है। हर शब्द का विद्यामान होने के लिए, उसका विपरीत का होना ज़रूरी है। किसी भी मौलिक शब्द को उसका विपरीत ही अर्थ प्रदान करता है। एक शब्द खुद अर्थहीन है और उसका विपरीत भी कोई मौलिक शब्द बिना अर्थहीन ही होता है। कोई भी शब्द खुद अपनी योग्यता से अर्थहीन होते हुए भी वह अपने विपरीत को अर्थ प्रदान करता है। इसी प्रकार एक शब्द भ्रामिक होता है। समझ ही मन की इस भ्रामिक द्वैत को प्रकट करता है।

 

ज्ञान, मान्यताओं की योजनाओं को उत्पन्न करता है। मान्यताएँ मनुष्य का क्षेत्र बन जाता है। जिस तरह पशु अपने इलाका का रक्षा करता है, उसी तरह मनुष्य अपनी मान्यताओं का रक्षा करता है। यही कारण है जब मनुष्य की मान्यताओं पर प्रश्न किया जाता है, तब उसका परिणाम स्वरूप क्यों क्रोध होता है। पर दूसरी तऱफ़, समझ यह प्रकट करता है कि सब मान्यताएँ केवल एक अभिप्राय, एक विचार है जो यथार्थ में एक ध्वनि है!

ज्ञान, क्रियाओं का आविष्कार करता है, अभ्यास करने का उपदेश देता है जो ज्ञानोदय को भी सम्मिलित करते हुए, अपने लक्ष्य पूरा कर सकने का वादा करता है। यदि वचन दिए गये लक्ष्य उपलब्ध नहीं हुए तो ज्ञान, मनुष्य को बार-बार प्रयत्न करने के लिए मज़बूर करता है । मनुष्य को अब तक यह समझना बाकी है कि प्रयत्न करना केवल और प्रयत्न करने की इच्छा को प्रेरित करने के सिवा कुछनहीं है। जीवन एक एकाकी गतिविधि है। यह एकाकी गतिविधि, रोशनी है। समझ यह प्रकट करता है कि जिस तरह जीवन में सब कुछ एक विचार है, उसी तरह एक क्रिया भी मन में केवल एक विचार है। समझ यह प्रकट करता है कि कोई भी क्रिया या कार्य,केवल एक चाक्षुष भ्रम है। मनुष्य को अब तक यह समझना बाकी है कि जीवन न तो कोई कार्य या क्रिया है। समझ यह प्रकट करता है कि मनुष्य जागृत और स्वप्नावस्था में, विचारों का संसार का अनुभव करता है। जब इन विचारों का स्वभाव का निरीक्षण किया जाता है, तब यह प्रकट होता है कि वे केवल ध्वनि हैं जो फिर से रोशनी ही है। एक समझदार आदमी, केवल जीवन के गतिविधियों का साक्षी बनता है और ज्ञान से अवगत रहता है जो केवल क्रिया का एक चाक्षुष भ्रम उत्पन्न करता है।

 

ज्ञान, स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों से प्राप्त किया जा सकता है। समझ को प्राप्त किया नहीं जा सकता; जिस तरह जीवन में सब कुछ एक आकस्मिक घटना है, उसी तरह समझ भी एक आकस्मिक घटना है। मनुष्य अपनी इच्छानुसार ज्ञान को प्राप्त नहीं करता। जो ज्ञान मनुष्य को ज़रूरी है, उसी को जीवन उसे प्रदान करता है। मनुष्य को जो जानना ज़रूरी है, वही वह जान पाता है। यह ज्ञान क्या होना है, उसे मनुष्य नहीं बल्कि जीवन ही निर्णय करता है। जीवन मनुष्य को ज्ञान इसलिए प्रदान करता है ताकि उसे यह समझ घटित हो सके कि ज्ञान एक भ्रामिक जीवन को जन्म देता है!

मनुष्य को यह मानने के लिए मज़बूर करते हुए कि वह एक कर्ता है, ज्ञान उसे अस्तव्यस्तथा की ओर ले जाता है जब कि समझ यह प्रकट करते हुए मनुष्य को एक स्पष्टता घटित करता है कि जीवन घटित होता है और मनुष्य उसे घटित नहीं करता। ज्ञान मनुष्य को खोजने के लिए मज़बूर करता है; आश्वासन, सुख और ज्ञानोदय खोजने के लिए भी मज़बूर करता है। मनुष्य को अब तक एक ऐसा आदमी से मिलना है जिसे खोज के परिणाम से उसे आश्वासन, सुख और ज्ञानोदय प्राप्त हुआ हो। मनुष्य को यह अब तक समझना बाकी है कि सभी खोज मन के भीतर है। अहं ही है जो व्यक्ति को खोजने के लिए मज़बूर करता है। व्यक्ति, यानि अहं मन में है। समझ मनुष्य को समझाता है कि आश्वासन,सुख या ज्ञानोदय, मन के भीतर नहीं है। केवल अस्तव्यवस्था ही कुछ करने की प्रेरणा देती है। ज्ञान कभी मनुष्य को स्थिरित नहीं बनाया। वास्तव में ज्ञान हमेशा मनुष्य को अस्थिर, अनिश्चित और अविश्वसनीय बनाता है। समझ यह प्रकट करता है कि जीवन सब कुछ निश्चय करता है यद्यपि निश्चय करने के लिए कुछ नहीं है। निश्चय करने के लिए कुछ नहीं है क्यों कि सभी परिस्थितियॉं मन में केवल भ्रामिक क्रियाओं का ज्ञान है।

ज्ञान मनुष्य को आशा यानि उम्मीद दिलाता है। मनुष्य आशा से जुडे रहता है। आशा मनुष्य जीवन का आधार यन्त्र है। आशा के बिना मनुष्य खोये हुए रहता है। आशा मनुष्य को जीने का एक कारण बनता है। आशा के बिना मनुष्य को जीना कठिन है। किसी न किसी तरह मनुष्य यह मानता है कि एक न एक दिन उसकी आशाएँ पूरी होंगी। जिस तरह मछली के लिए पानी है उसी तरह मनुष्य के लिए आशा है। अभी प्रश्न यह है कि वह कौन है जो आशा से लिपटे हुए रहता है। यह स्वाभाविक है क्यों कि अहं के समान, आशा भी भविष्य में है। आशा अहं को जीने का आग्रह देती है। अहं विश्वस्त है कि उसके सारे सपने भविष्य में एक प्रदीप्त और धूपदार सवेरे में पूरे होंगे।

मनुष्य चाहे या न चाहे, इस संसार में आया है। वह चाहे या न चाहे जीवित है। इसलिए जो उसे जीवित रखता है वह आशा नहीं है।मनुष्य जीवित है क्यों कि जीवन यह निर्णय करता है। आशा भविष्य में है और भविष्य एक माया है। भविष्य, भविष्य के रूप में विद्यमान नहीं होता। वह समय का कोई क्षेत्र नहीं जहॉं मनुष्य विद्यमान हो सकता है। वर्तमान क्षण ही उस क्षण का भविष्य है जो उपस्थित था। मनुष्य भविष्य में जी रहा है (जो वर्तमाण क्षण है) और उसी समय भविष्य में जीना का सपना देख रहा है। मनुष्य वर्तमान क्षण में आशा नहीं कर सकता जहॉं मनुष्य वास्तव में जी रहा है। व्यक्ति(यानि अहं) वर्तमान क्षण में नहीं है, इसलिए वर्तमान क्षण में कोई नहीं हो सकता जो आशा कर सकता है। ‘वर्तमान’ क्षण-‘अब’ में कोई भी उपस्थित न होने के कारण- आशा करना या उम्मीद रखना अहं के लिए इसलिए एक सपना है। आशा के बिना जीना का मतलब है विश्वास में जीना। इसलिए, ज्ञान मनुष्य को विश्वास के बजाय, अविश्वास में जीनो को मज़बूर करता है।

ज्ञान महत्वपूर्ण है क्यों कि यह माना जाता है कि ज्ञान, जीवन को निर्देश और नियन्त्रण करते हुए वर्तमान में है। यह भी माना जाता है कि ज्ञान के बिना जीना असंभव है। वह बहुत विश्वसनीय प्रकट होता है। मनुष्य सोचता है कि यदि उसे कोई ज्ञान न होता, वह विवश होगा। पर प्रश्न यह है कि क्या यह सच है? मनुष्य के मन में ज्ञान का प्रकटन होने के पहले वह कैसे जीवित रहा? पूर्वैतिहासिक मानव, अपने दैनिक जीवन को ज्ञान के बिना बिताया क्यों कि मन तब निष्क्रिय था। जैसे सब कुछ प्रकृति में था, मनुष्य भी उसी समान था। प्रकृति रूपान्तरित हो रहा था और साथ-साथ मानव भी। इस रूपान्तरण में मनुष्य के सब कार्य सम्मिलित था, मनुष्य यह न जानते हुए कि वह कुछ कर रहा था। मनुष्य को जीने के लिए ज्ञान की आवश्यकता नहीं रही।

जीवन में कार्य करने के लिए तब भी ज्ञान की ज़रूरत नहीं रही और अब भी ज़रूरी नहीं। जीवन सहजता से ज्ञान के बिना कार्य करता है। जीवन अहं को ऐसे सोचने में बहकाता है कि जीवन चलाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। जीवन को नियन्त्रण करने के लिए, ज्ञान को वर्तमान में होना आवश्यक है। वह नहीं है; वर्तमान में कोई ज्ञान नहीं। वर्तमान में केवल ध्वनि है, जो (किसी भी भाषा की) एक स्वर वर्ण या एक व्यंजन के रूप में प्रकट होता है-स्वर वर्ण और व्यंजन दोनों मिलकर एक अक्षर बनता है। कोई भी शब्द, एक या एक से ़ज़्यादा अक्षर से बनता है। परिचित अक्षर एक अर्थ उत्पन्न करता है। अर्थ भी एक शब्द के सिवा कुछ नहीं जो फिर एक अक्षर है, जो आखिर एक स्वर वर्ण या व्यंजन ही है, और जो अंत में फिर ध्वनि के सिवा कुछ नहीं है। इसलिए वास्तव में, एक स्वर वर्ण, एक व्यंजन, एक शब्द और एक अर्थ विद्यमान नहीं होते और जो विद्यमान होता है, वह केवल ध्वनि है- फिर भी जीवन में ज्ञान विद्यमान होने जैसा लगता है। ध्वनि बडी अद्भुतता से ज्ञान के रूप में प्रकट होता है।जीवन की प्रज्ञा ऐसी है।

अत: ज्ञान कुछ वास्तविक या यथार्थ नहीं है। और यह ज्ञान सदा अतीत या भविष्य का ही है। समयहीन ‘अब’ का कोई ज्ञान नहीं और नाहि समयहीन ‘अब’ में कोई ज्ञान है। ज्ञान सदा अतीत या भविष्य (जो परिष्कृत अतीत के सिवा कुछ नहीं) के बारे में होने के कारण, ज्ञान अतीत में होने का माना जाता है। अतीत ही ज्ञान है। पर अतीत कहॉं है? यह ज्ञान कहॉं है? अतीत कहॉं हो सकता है जहॉं से मनुष्य वर्तमान और भविष्य के बारे में सीख सकता है? मनुष्य का वर्तमान अवस्था ही प्रमाण है कि वह ज्ञान से कुछ सीखा नहीं। मनुष्य क्यों ज्ञान से कुछ सीखा नहीं? क्या वह सीखने के लिए उतना बुद्धिमान नहीं? या ज्ञान से कुछ सीखना संभव नहीं? ज्ञान से सीखना संभव नहीं क्यों कि अतीत है ही नहीं। अतीत भी केवल एक विचार, एक शब्द और एक अक्षर- एक ध्वनि है! तो अतीत कहॉं है? यह ध्वनि कहॉं है जो एक शब्द के रूप में उसके अर्थ सहित प्रकट होता है (जो फिर से एक शब्द है)? यदि अतीत, वर्तमाण और भविष्य से अलग है, तो वर्तमान और भविष्य कभी घटित नहीं हो सकते। यदि वर्तमान, अतीत और भविष्य से अलग है, तो अतीत और भविष्य कभी घटित नहीं हो सकते। उसी तरह, यदि भविष्य, अतीत और वर्तमान से अलग है, तो अतीत और वर्तमान कभी घटित नहीं हो सकते। यदि समयहीन ‘अब’ में कोई अतीत नहीं, तो कोई वर्तमान या भविष्य नहीं हो सकता; यदि समयहीन ‘अब’ में कोई वर्तमान नहीं, तो कोई अतीत या भविष्य नहीं हो सकता। यदि समयहीन ‘अब’ में भविष्य नहीं तो कोई वर्तमान या अतीत नहीं हो सकता। अतीत, वर्तमान और भविष्य के रूप में रूपान्तरित होते हुए, समयहीन ‘अब’ में है। अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच कोई अलगाव नहीं। तीनों समयहीन ‘अब’ की एक माया है। जीवन कोई भी एक शब्द को सृष्टित नहीं किया है जो अतीत, वर्तमान और भविष्य का संकेत कर सके। वह अलगाव एक माया है। अत: अतीत, वर्तमान और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं। यदि अतीत, वर्तमान और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं, फिर ज्ञान का भी कोई अस्तित्व नहीं।

ज्ञान जीवन में अनुपस्थित होने के कारण, वह कभी जीवन का नियन्त्रण नहीं कर सकता या नाहि उसे घटित कर सकता। जीवन हर क्षण समयहीन ‘अब’में घटित हो रहा है, जिसका मतलब है कि ज्ञान जीवन को घटित कराने का सोचने के पहले ही, जीवन घटित हो रहा है। शुरुआत में सब कुछ होने के जैसे, मनुष्य को, वह क्या था या वह क्या कर रहा था, उसका कोई ज्ञान नहीं था उसे : जीवन सब कुछ अभिव्यक्त कर रहा था। जैसे-जैसे जीवन परिष्कृत हुआ, वह मनुष्य के मन में ज्ञान प्रदान किया। जब जीवन की गतिविधि साधारण थी, साधारण क्रियाओं का ज्ञान प्रदान किया(हालांकि भ्रामिक है) - जैसे चलना, इत्यादि। मनुष्य को चलने का ज्ञान था पर उससे कार्यान्वित होने का नहीं।

साधारण गतिविधियॉं, निपुण गतिविधियों के रूप में जीवन द्वारा रूपान्तरित हुए और मनुष्य को निपुण क्रियाओं का (हालांकि भ्रामिक है) ज्ञान प्रदान किया- जैसे यंत्रों को बनाना, इत्यादि। और उस सुनिश्चित क्षण पर जब जीवन अपने गतिविधियों को साधारण से निपुण में रूपान्तरित किया, तब वह मनुष्य को यह ज्ञान प्रदान किया कि वही क्रियाओं को घटित कर रहा था।

जब अंत में जीवन अपने आप को निपुण से वैज्ञानिक गतिविधि में रूपान्तरित किया, तब वह मनुष्य को वैज्ञानिक क्रियाओं का (हालांकि भ्रामिक है) ज्ञान प्रदान किया- जैसे प्रौद्योगिकी, इत्यादि। इस क्षण पर मनुष्य को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि इन क्रियाओं को(सभी भ्रामिक होते हुए) वह चुनाव, निर्णय और आदेश कर सकता है। शीध्र ही मनुष्य विश्वस्त हुआ कि साधारण, निपुण और वैज्ञानिक क्रियाओं को कार्यान्वित कर रहा था। ज्ञान मनुष्य को सशर्त बनाने में सफल हुआ। जीवन घटित होता है जब कि ज्ञान, मनुष्य को यह सपने देखने में मज़बूर करता है कि वही जीवन को घटित करता है। जीवन की परिष्करण की प्रज्ञा ऐसी है कि वह आज भी मनुष्य को बहकाता है कि ज्ञान ही जीवन को कार्यान्वित, नियन्त्रित और निर्माण करता है जब कि समझ यह प्रकट करता है कि ऐसा नहीं हो सकता।

 

इसलिए वैज्ञानिक ज्ञान, विज्ञान की प्रगति को घटित नहीं किया है; जीवन अपने आप को वैज्ञानिक तौर से प्रकट किया है- प्रगति और ज्ञान, दोनों के रूप में। प्रगति, रोशनी की प्रक्रिया है और ज्ञान, ध्वनि की अभिव्यक्ति! जीवन की प्रक्रिया समयहीन ‘अब’ में घटित होता है। यह प्रक्रिया, ऊर्जा की एक आरंभहीन और अंतहीन रूपान्तरण है वह ज्ञान फिर भी, एक माया है!

 

इसलिए यह नहीं हो सकता कि ज्ञान ही मनुष्य की अस्तित्व को बनाये रखता है। यह नहीं हो सकता कि ज्ञान के बिना मनुष्य की अस्तित्व नहीं हो सकता। मनुष्य मानता है और विश्वस्त भी है कि नौकरी मिलने के लिए, उसे ज्ञान प्राप्त करनी होगी और इस ज्ञान के सहारे अपनी पसन्द की नौकरी को प्राप्त करेगा। मनुष्य को अब तक यह समझना बाकी है कि जीवन ही ज्ञान और नौकरी को घटित करता है। यह मानना कि नौकरी प्राप्त करना ज्ञान से संबद्ध है, एक माया है।

उसी तरह, मनुष्य मानता है कि उसे एक व्यवस्थित दैनिक जीवन बिताने के लिए ज्ञान का होना ज़रूरी है। पर क्या यह संभव हो सकता है? क्या वह जीवन में हर कदम को नियमित कर सकता है? बीच में कुछ भी हो सकता है और होता भी है(केवल विचारों के रूप में और क्रियाओं के रूप में नहीं। मनुष्य के विचार में जीवन कैसी ‘होनी चाहिए’- उसके हर एकाकी क्षण को शामिल करना असंभव है। इसलिए यह ज्ञान कि जीवन कैसी होनी चाहिए काल्पनिक है। ज्ञान का नाटक ही ऐसा है।

 

यह नहीं हो सकता कि ज्ञान द्वारा मनुष्य सुरक्षित, सुखी और ज्ञानवान हो सकता है क्यों कि यदि हो सकता तो वह अब तक सुरक्षित, सुखी और ज्ञानवान बन चुका होता। मनुष्य अब तक ज्ञान के बिना जीता आ रहा है। ज्ञान केवल ऐसी एक माया उत्पन्न करता है कि उसके बिना मनुष्य जी नहीं सकता। ज्ञान केवल छाया है। प्रज्ञा ही जीवन है। प्रज्ञा समयहीन ‘अब’ में है। ज्ञान जीवन से मिला नहीं और नाहि जीवन ज्ञान से। ज्ञान एक सपना हैऔर यह सपना यथार्थ प्रकट होता है क्यों कि वह एक निरंतर सपना है! इस सपने से जागना ही समझ है।

ज्ञान मनुष्य को यह मानने में मज़बूर करता है कि वह एक कर्ता, विचारक और वक्ता है। समझ यह प्रकट करता है कि भगवान भी कर्ता, विचारक और वक्ता नहीं हो सकता। ज्ञान, माया को यथार्थ के रूप में देखता है। समझ, माया को माया के रूप में देखता है। ज्ञान, मनुष्य को अपने मन के भीतर खोये रहने में और मन के भीतर जवाबों को खोजने के लिए मज़बूर करता है। समझ यह प्रकट करता है कि जवाब केवल मान्यताएँ हैं और मान्यता सच नहीं है और यह मनुष्य को जीवन से अवगत रहने को मज़बूर करता है, यानि एक ऐसा जीवन से जो सवाल और जवाब के बिना है। ज्ञान एक भ्रामिक व्यक्ति को सुदॄ़ढ बनाता है और उसका भरण-पोषण भी करता है क्यों कि दोनों भ्रामिक समय में है। समझ समयहीन ‘अब’ में एक ज्ञानी को जन्म देता है।

ऐसे एक ज्ञानी को यह बोध होता है कि ज्ञान ध्वनि है और समझ रोशनी है। और रोशनी और ध्वनि, भगवान है!

कॉपिरैट वी.एस.शंकर , 2006

 

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