इन्डियन हेरल्ड - ह्यूस्टन- यू.एस.ए- अक्टोबर -2007
डाक्टर. विजय शंकर एम. डी. पी. एच. डी. लिखित
यथार्थता
शब्द ही यथार्थता और स़िर्फ़ यथार्थता को सृष्टित करता है- एक यथार्थता जो मनुष्य सर्वसत्तामक या एक सम्पूर्ण सत्ता के रूप में स्वीकार किया है। क्रियाऍं यथार्थता को सृष्टित नहीं करते यद्यपि मनुष्य विश्वस्त हैकि वे करते हैं, क्यों कि क्रियाएँ भी,जीवन में एक भौतिक यथार्थता नहीं बल्कि विचार हैं।श्रव्य व्याख्यान के रूप में व्यक्त किए गए शब्द या विचार के रूप में मन में सुनी शब्द एक सम्पूर्ण यथार्थता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की है। पर जिस यथार्थता से मनुष्य विश्वस्त है, अब तक उसकी परिभाषा उसे करनी है। मनुष्य को अब तक यथार्थता क्या हो सकता है, उसकी परिभाषा करनी है। यह बात कि शब्दों के रूप में लिखित या व्यक्त किये गये उदेश्य यानि योजनाऍं और मन में सुनी गयी विचार, सदा परिवर्तित हो रहें हैंऔर पुरुष और स्त्री के बीच ललकारे जाने के कारण,वे यथार्थता के पद से जैसी होनी चाहिए वैसे घट नहीं जाता क्यों कि यथार्थता, शाश्र्वतत्व और अपरिवर्तनशीलता जैसे विशेषताओं का होने का प्रत्याशित करेगा। पर जीवन में सब कुछ शाश्र्वत या अपरिवर्तनीय के रूप में प्रकट होता नहीं: सभी और कुछ भी स्थायी और अपरिवर्तनीय नहीं है,यानि इसमें मनुष्य के विचार और शब्द भी सम्मिलित हैं।प्रकट होते ही, शब्द यथार्थ संसार को सृष्टित करता है जिसका बोध मनुष्य को है और जिसमें वह जीता है।पर क्या यह संसार यथार्थ हो सकता है और क्या मनुष्य का यह यथार्थ संसार जीवन में विद्यमान है, क्यों कि जीवन रोशनी है जो एक रूप से दूसरे रूप में हर क्षण रूपान्तरित हो रहा उर्जा है?
जीवन के लिए और जीने के लिए और ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए मनुष्य की योजना फिर भी शब्दों में जमा हैऔर परिणामों को नियन्त्रित करने की यथार्थता में एक दॄ़ढ - विश्वास स्थापित हो जाता है। योजनाएँ और परिणाम के अस्तित्व के लिए समय की ज़रूरत है और इसलिए मनुष्य समय पर निर्भर हो जाता है।यह निर्भरता केवल घटनाऍं और क्रियाएँ के अनुक्रम में एक दॄ़ढ-विश्वास को प्रेरित कर सकता है, और करता भी है और मनुष्य एक यथार्थता के संसार में और घसीटा जाता है। शब्दों का निरन्तर उपयोग से वह दैनिक जीवन में एक यथार्थता का जाल कातने लगता हैजिसकी वजह से वह उत्फुल, उत्तेजित, और समृद्ध बनने का महसूस करता है और ऐसी यथार्थता का अनुभव करने के लिए वह निर्णय करता,चुनता,योजनाएँ बनाताऔर प्रार्थना करता है या वह हताश, निराश और उदास होने का महसूस करता है पर फिर भी ऐसी यथार्थता को टालने के लिए वह निर्णय करता, चुनता, योजनाएँ बनाता,और प्रार्थना करता है( यानि वह ऐसे सोचने में मज़बूर किया जाता है जब कि ये शब्द भी दोनों परिस्थितियों में घटित होते हैं)। पर मनुष्य अब तक यह निश्चय नहीं किया है कि दोनों अनुभव यथार्थ हैं या मायाहैं। क्या ऐसे अनुभव यथार्थ हो सकते हैं और क्या जीवन में उनका कोई अस्तित्व है क्यों कि जीवन रोश्नी है जो एक रूप से दूसरे रूप में हर क्षण रूपान्तरित हो रहा ऊर्जा है?
‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ ’- ऐसे शब्दों में जब प्यार का परिणाम का निरिक्षण किये जाते हैं, तब यथार्थता केवल माया के रूप में प्रकट होता है। यदि प्यार यथार्थ है तो उसका परिणाम या तो भयानक या सन्तोषप्रद होनी चाहिए। पर अनुभव मनुष्य को यह सिखाता है कि प्यार कोई रूसी जुए का खेल का उपन्यास का एक रूप है और मानवीय प्यार के खतरों से मनुष्य को यह चेतावनी देने के लिए धर्म भी इससे बहुत दूर नहीं। शब्दों द्वारा यथार्थ के रूप में महत्व दिया गया प्यार, फिर से शब्दों के कारण, टूट जाता है जब वे विश्र्वासघात या अविश्वास का संकेत करतें हैं क्यों कि प्यार की कसौटी व़फ़ादारी और विश्वास है। टूठा हुआ प्यार फिर भी, जो टूटना नहीं चाहिए यदि वह यथार्थ है, एक यथार्थ प्यार का पद प्राप्त करता है केवल यह कहने पर कि व्यक्त किये गये शब्द विश्र्वासघात और अविश्र्वास संकेत करने में उनका मतलब नहीं था। इसका मतलब यही हो सकता है कि जो शब्द विश्र्वासघात और अविश्वास का संकेत करतें हैं, वे व़फ़ादारी और विश्वास का अर्थ भी संकेत करतें हैं। यदि ऐसा है तो, किसी को आश्चर्यचकित होना चहिए कि कोई भी अर्थ कितना वास्तविक हो सकता है। जो भी शब्द स़िर्फ़ प्यार का नहीं, बल्कि धर्म, आद्यात्मिका,विज्ञान के साथ संबद्ध रखता है उसका विरोधाभास ऐसा ही है।
इस प्रकार जीवन की यथार्थता निश्चित किया जाता है जो फिर भी संदेह और असत्य से परे नहीं है पर निश्चित और सच्चा भी है और यदि जीवन यथार्थ होने का निश्चित किया जाता है तो वह या तो मित्या या यथार्थ होनी चाहिए नाकि दोनों।फिर भी मनुष्य की यथार्थता, समय और क्रिया के क्षेत्र में स्थित है। यदि जीवन, समय के क्षेत्र में है तो क्या वह शाश्वत हो सकता है क्यों कि शाश्वतत्व,अपने में समय को सम्मिलित करने का अनुमति नहीं देगा। यद्यपि यह यथार्थता अस्थायी से परे, संतुष्टता या सुख प्रदान नहीं करता, मनुष्य इस क्षेत्र के भीतर जीवन को सम्मिलित करने में असमर्थ है,और वह करता भी कैसे, क्यों कि समय जीवन में एक भौतिक सत्ता के रूप में विद्यामान नहीं होता। समय भी एक विचार है और इसलिए यह समझना अक्लमंद की बात है कि मन समय के क्षेत्र में ही काम करता है जब कि जीवन समयहीन और विचारहीन ‘अब’में एक ऊर्जा से दूसरी ऊर्जा में रूपान्तरित होता है। मनुष्य को यह अब तक समझना बाकी है कि शरीर की गतिविधि इसलिए मन पर निर्भर नहीं रह सकता जब कि विचार की गतिविधि समय पर निर्भर है क्यों कि समय भी एक विचार है। और जब भी समय का विद्यामान होता है, मृत्यु भी संलग्न होगा जो मनुष्य को मृत्यु के विस्तार में जीने को मज़बूर करता है! यह विरोधाभास है कि मनुष्य के लिये मृत्यु यथार्थ है जब कि उसी समय मानता है कि शब्दों द्वारा सृष्टित हुआ शब्द जीवित है- और होता भी कैसे, क्यों कि, यदि मृत्यु यथार्थ होती, जो भी यथार्थ है, वह मृत्यु ही होनी चाहिए। क्या मृत्यु यथार्थ हो सकती है और जीवन में विद्यामान हो सकती है, क्यों कि जीवन तो रोश्नी है जो एक रूप से दूसरे रूप में हर क्षण रूपान्तरित हो रहा ऊर्जा है?
जीवन जीवित है, सजीव है, जीवन खुद जीवन ही है। वह ऊर्जा का एक निरन्तर धार है जो हर अभिव्यक्ति और गतिविधि में यानि छोटे से विस्तृत तक, सादगी से अयन्त जटिल तक प्रकट और अदृश्य होता है। जीवन यथार्थता की एक जादुई, चाक्षुष और श्रवणात्मक माया अभिव्यक्त करता है,जिससे मनुष्य अनावश्यकता से बन्धित रहना चाहता है या जिससे भाग जाना चाहता है जब कि हर क्षण जीवन फ़रार हो जाता है जिसका वह अनभिज्ञ है क्यों कि वह शब्दों से अवगत है। शब्दों द्वारा मनुष्य एक पहचान के लिए एक हताश खोज में मग्न रहता है जो सदा ज़ारी रहता है पर कभी होता नहीं। जीवन, शब्दों और मन के रूप में, भावदशा, मनोवृत्त्ति, प्रत्याशा, इच्छा, आशा, निराशा, निर्णय, धर्म, आद्यात्मिका, मान्यता के योजनाएँ इत्यादि के विस्तार अनुचरवर्ग सहित ध्वनि को एक भ्रामिक अभिव्यक्ति के रूप में और अहं के रूप में खुद को प्रकट करता है। चाहे जो भी प्रकटन या अभिव्यक्ति हो, जीवन उसका ऊर्जा है, जो एक रूप से दूसरे रूप में रूपान्तरित हो रहा है।
जीवन कभी जीवन को निराश नहीं करता- वह कर भी नहीं सकता-नाहि मनुष्य के भ्रामिक मन के योजनाओं और परिणाम को जोडने के लिए उसे नियंत्रित या निर्देश किया जा सकता है। और यदि जीवन नियंत्रण होने जैसा प्रकट होता है और इसलिए भविष्य में भी होने जैसा लगता है, तो यह सिर्फ़ ऐसा है कि जीवन ठीक नियमनिष्ठ क्षण में शुद्धता के साथ ऐसा प्रकट होता है कि उसकी गतिविधियॉं और शब्द, नियंत्रण का एक प्रभाव प्रकट करता है। जीवन अप्रत्याशित और बहुत बुद्धिमान है - शब्दों के भ्रामिक स्वभाव जो समस्याओं को प्रकट करता है उसके प्रति समादानों को जिस प्रकार चाहिए उसी रीति से उचित समय पर और सुनिश्चित ढंग से प्रदान करता रहता है; जीवन स्वाभाविक है- अपने गतिविधियों का कोई पूर्व सूचना दिये बिना और फिर भी क्रियाओं को सृष्टित करते हुए जो भ्रामिक होते हुए भी, शब्दों के संसार में यथार्थ प्रकट होते हैं जो प्रचुर परिस्थितियों को सृष्तिट करता है; जीवन अनियंत्रित है - भ्रामिक होते हुए भी मनुष्य की ज़रूरतें और आवश्यकताओं का नियोजन करता है, और वो भी अद्भुत औदार्य के साथ।जीवन का अनुसरण करना ही जीवित रहने का मतलब है; मन की बातें और शब्दों के आकर्षण पर ध्यान देना, मृतक होने के समान है! भ्रामिक मौत को कौन चुनेगा? भ्रामिक को कौन चुनेगा जो मर जाता है और यथार्थ को नहीं जो शाश्वत है? लगता है मनुष्य ऐसा ही चुनता है क्यों कि जीवन बिताने और सर्वसत्तात्मक की ओर खुद का पथ-प्रदर्शन करने के लिए शब्दों का सहारा लेता है, पर मृत भ्रामिक मनुष्य को जीवन में और सर्वसत्तात्मक की ओर पथप्रदर्शन कर सकता है या नहीं एक प्रश्न है जिसे मनुष्य ईमानदारी से विवेचन करना चाहिए, यदि वह यथार्थता को या वास्तव में वह कौन है यह समझना चाहता है तो। यह बोध कि शब्दों द्वारा यथार्थ या सर्वसत्तात्मक की ज्ञात नहीं हो सकता ही ज्ञानोदय यानि यथार्थता है।